Monday, October 26, 2020

बिहार की बदलती सियासी बयार

 




हाल के दिनों तक ऐसी ही चर्चा चल रही थी कि बिहार का चुनाव एक तरफा होने जा रहा है। लालू यादव की अनुपस्थिति में राजद का रंग फीका पड़ जायेगा। तेजस्वी यादव नीतीश कुमार का अकेले मुकाबला नहीं कर पाएंगे और एनडीए गठबंधन बहुत आसानी से बाजी मार ले जाएगा। लेकिन जो लोग तेजस्वी को कल तक कुछ नहीं मान रहे थे, चुनावी माहौल को देखते हुए तेजस्वी की भूमिका को समझने लगे हैं, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। लोगों में तेजस्वी की इसी स्वीकार्यता और लोकप्रियता को देखते हुए। भाजपा-जदयू के स्टार प्रचारक आजकल अपने विकास की चर्चा करने से ज्यादा, लोगों में यह संदेश देना चाह रहे हैं कि तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री बनने के लायक नहीं हैं। जबकि भाजपा-जदयू के इस हमले से राजद समर्थक और मजबूती से तेजस्वी के पक्ष में गोलबंद हो रहे हैं और समाज के अन्य वर्गों को भी अपने पाले में लाने की कोशिश में हैं।




चुनाव का जैसा माहौल बन रहा है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि लोग स्वेच्छा से, बहुत ही सक्रिय रूप से इसमें भाग ले रहे हैं। आज बिहार की एक बड़ी आबादी, चाहे वह सवर्ण हो, पिछड़ा हो, अति पिछड़ा हो, नीतीश कुमार की जगह कोई दूसरा चेहरा चाह रही है। सवर्ण भाजपा को देखते हुए जदयू को वोट भले ही कर दे लेकिन उसके सामने भी आज लोजपा एक बढ़िया विकल्प है जबकि पिछड़ा, अति पिछड़ा, दलित समाज के लोग तेजस्वी को एक बेहतर विकल्प के रूप में देख रहे हैं, जो तेजस्वी की रैलियों में एक बड़ी भींड़ के रूप में गवाही हैं।



ऐसा लग रहा है, बिहार के लोग किसी बड़े बदलाव की तरफ देख रहे हैं। लोग बहुत स्पष्ट हैं कि उन्हें बिहार में ऐसी सरकार चाहिए जो शिक्षा, रोजगार, पलायन, गरीबी आदि पर काम करे। हमें यह मानना होगा कि अभी तक मुद्दों पर आधारित राजनीति करने में विपक्ष कामयाब रहा है। जिस कारण पांच साल पहले नीतीश कुमार का अद्भुत लगने वाला विकास, आज बहुत कम लग रहा है। बिहार की जनता आज हर उस नेता को सुनना पसंद कर रही है, जो मुद्दों पर बात कर रहा है। लोगों के मिजाज को समझते हुए और लोगों में विकास की भूख बढ़ाते हुए विपक्ष जिस तरह सिर्फ और सिर्फ मुद्दों पर बात कर रहा है, सत्ता पक्ष की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं।

विपक्ष सत्ता पक्ष की बातों पर रियेक्ट करने के बजाय बार-बार जनहित से जुड़ी समस्याओं को उठाकर, सत्ता पक्ष को अपने ग्राउंड पर ला रहा है। विपक्ष को यह बखूबी पता है कि यदि वह मुद्दों से थोड़ा भी भटका तो एनडीए के जाल में फंस जाएगा इसलिए वह चाहता है कि एनडीए उसके ग्राउंड पर आए और फिलहाल ऐसा ही होता दिख रहा है।


नीतीश कुमार अपनी रैलियों में बार-बार कह रहे हैं कि विपक्ष 10 लाख नौकरियां कहाँ से देगा, उतना पैसा कहाँ से लाएगा, उसको कभी शासन करने का तौर-तरीका भी पता है। नीतीश कुमार बार-बार तेजस्वी को एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर पेश करते हैं, जिसे कुछ भी ज्ञान नहीं है, जो कुछ भी लिखता-बोलता रहता है। नीतीश कुमार के इस तरह का बयान यह बतलाने के लिए काफी है कि तेजस्वी से उन्हें चुनौती मिल रही है। वो उसपर रियेक्ट करने से खुद को नहीं रोक पा रहे हैं। ऐसा ही जदयू लोजपा के साथ कर रहा है। जबकि भाजपा 10 लाख नौकरी की तोड़ में 19 लाख रोजगार देने की बात कर रही है। ऐसा करके वह तेजस्वी के वादों को हल्का करना चाह रही है। मतलब कि नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी तेजस्वी के बारे में निरंतर नकारात्मकता फैलाना चाह रहे हैं। सच पूछिए तो तेजस्वी यह चाह भी रहे हैं कि सत्ता पक्ष के लोग उनपर खूब चर्चा करें ताकि वे इस चुनाव के केंद्र में स्थापित हो जाएं। उसके बाद वे अपने मुद्दों की राजनीति कर सकें।



बिहार का यह चुनाव भाजपा के लिए नाक का सवाल है। पिछली बार भी वह कड़ी मेहनत के बावजूद हार गई थी, जबकि इस बार वह राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरना चाह रही है। तो वहीं नीतीश कुमार अपना एक अंतिम कार्यकाल पूरा करना चाह रहे हैं, जिसके लिए वह पुरजोर तरीके से लगे हुए हैं ताकि वे एक बार और मुख्यमंत्री बन जाएं। जबकि तेजस्वी यादव युवा होने के नाते खुद को नए सिरे से स्थापित करना चाह रहे हैं। वे नीतीश कुमार के 15 वर्षों में फैले असंतोष का लाभ उठाकर, यह साबित करना चाह रहे हैं कि लालू यादव के सामाजिक न्याय को वे आर्थिक न्याय के रूप में आगे बढ़ाएंगे। वे हर रैली में यही कह रहे हैं कि अब बिहार को नीतीश कुमार की जरूरत नहीं है क्योंकि नीतीश कुमार अब थक चुके हैं, उनसे बिहार सम्भलने वाला नहीं है। वह लोगों से मुद्दों पर वोट करने और बदलाव की अपील कर रहे हैं। अपने कॉन्फ्रेंस और भाषणों में वो कई बार जदयू को हल्का साबित करने की कोशिश कर चुके हैं। वे बार-बार इस बात पर ज्यादा जोर देते हैं कि बिहार का चुनाव राजद और भाजपा के बीच का चुनाव है क्योंकि नीतीश कुमार के पास अब कोई जनाधार नहीं रह गया है।



यह चुनाव सही मायनों में बहुतों का भविष्य तय करेगा। एक तरफ भाजपा-जदयू का गठबंधन, तो दूसरी तरफ कांग्रेस, राजद और वाम दलों का गठबंधन तो वहीं तीसरी तरफ ओवैसी, मायावती, उपेंद्र कुशवाहा का एक नया गठबंधन, जो एक प्रयोग के रूप में जनता के सामने है है। ऐसे में, जनता के लिए भी निर्णय लेना बड़ी चुनौती बन गयी है। एक भाजपा को छोड़ दिया जाए तो लगभग सभी पार्टियां थोड़ी-बहुत भिन्नता के साथ एक जैसी ही है, जो समाजवाद से प्रभावित है। हर पार्टी की अलग-अलग क्षेत्रों में पकड़ है। ऐसे में जनता का एक-एक वोट इन सभी के हार-जीत का फासला तय करेगा। इसमें कोई शक नहीं है कि बिहार चुनाव का परिणाम हमेशा की तरह इस बार भी चौकायेगा।



चाहे यूपीए हो या फिर एनडीए दोनों के लिए इस बार तीसरा मोर्चा बड़ी परेशानी है। इसके अलावा लोजपा जदयू के लिए सिर दर्द बन गया है क्योंकि भाजपा को पसंद करने वाले और नीतीश को नापसंद करने वाले लोगों के लिए लोजपा एक विकल्प है। मोटे तौर पर वोटों का बंटवारा भी तीन गठबंधनों के बीच हो रहा है। तीसरे मोर्चे को ज्यादतर वोट गैर सवर्ण का मिलेगा। ऐसे में, सीमाँचल के इलाका, जहां अभी तक राजद और कांग्रेस आसानी से जीतती आयी थी, वहां अब तीसरा मोर्चा उसके वोट बैंक में सेंध लगा रहा है। हमें यह समझ जाना चाहिए कि बिहार चुनाव में जीत-हार को बहुत स्पष्ट नहीं देखा जा सकता है। चूंकि समय बीतने के साथ यह ध्रुवीकरण और भी तेजी से बढ़ेगा और चुनाव का दिन आते-आते हवा का रुख और तेजी से बदलेगा। इसलिए किसी की बहुत आसानी से एक तरफा हार या जीत की घोषित करना वर्तमान समय में मुश्किल है।


सर्वे में जो भी आ रहा हो लेकिन बिहार में सर्वे का परिणाम अक्सर गलत साबित हो जाता है। इस बार के चुनाव में जनता ने जिसके प्रति भी थोड़ी नरमी दिखाई वह बाजी मार ले जाएगा। बाकी चुनाव परिणाम का इंतजार हर किसी को इंतजार है।

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