Thursday, May 21, 2020

आयुर्वेद के अनुसार जलपान विधि

आयुर्वेद के अनुसार जलपान विधि

जलपान विधान जल का सेवन हमारे दिनचर्या का मुख्य अंग माना गया है। जल हमारे शरीर का लगभग 70% भाग है परंतु यह जल शरीर के तंतुओं में सूक्ष्म रूप में रहता है। हमारे शारीरिक गतिविधियों को बनाए रखने हेतु जलपान की प्रतिक्रिया अत्यंत आवश्यक है परंतु उससे भी अधिक आवश्यक है यह समझना कि इस प्रकार जल का पान किया जाए। आयुर्वेद शास्त्र में जलपान विधि का अत्यंत महत्व है। जल को गुण में गुरु, शीत व सर माना गया है| यह शरीरगत सभी तंतुओं को अपने स्थान पर बनाए रखता है तथा उनमें उपस्थित रसायनिक प्रतिक्रिया को भी निरंतर बनी रहती है।

बैठ कर जलपान करें
शास्त्रों में बैठ कर जलपान करने का विधान है क्योंकि जब खड़े होकर जलपान किया जाता है तब शारिरगत श्लेष्मा संधियगत जमा होना शुरू हो जाता है जिसके कारण भावी व्याधि जैसे आमगत ,अस्थि संधिगत शूल, अस्थि सुशिर्ता के लक्षण उत्पन्न हो सकते हैं।

अंतराल में जल सेवन
एक सांस में संपूर्ण जल का सेवन करना त्याज्य माना जाता है। जल को रुक – रुक कर थोड़े -थोड़े भाग में ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार अन्न को भी छोटे-छोटे टुकड़ों में खाना चाहिए। शास्त्रों में तथा आयुर्वेद वैद्य द्वारा माना गया है कि जल का सेवन मानव प्रकृति- वात पित्त कफ पर बहुत प्रभाव डालती है तथा जलपान विधि प्रकृति के आधार पर करना चाहिए। वात प्रकृति वाले व्यक्ति को भोजन से 1 घंटा पूर्व जल सेवन करना चाहिए। इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है। पित्त प्रकृति वाले व्यक्ति को घुट- घुट कर भोजन के समय जलपान करना चाहिए जिससे भोजन के पाचन की प्रतिक्रिया तेज हो। कफ प्रकृति के व्यक्ति को भोजन के पूर्व जल पीना चाहिए। ऐसा करने से वह कम खाएंगे तथा यह वजन घटाने में सहायक है।
सामान्य तापमान क्या उष्ण जल का सेवन उत्तम है
बर्फ वाला या फ्रिज का ठंडा पानी त्याज्य माना गया है क्योंकि यह कोष्ठगत जठराग्नि को कम करने वाला होता है। इसके कारण रक्तसंवहन भली प्रकार से नहीं हो पाता तथा मलाबद्धता का भी यह कारण माना गया है। सामान्य तापमान या उष्ण जल पीने से पाचन शक्ति तीव्र तथा वजन कम होता है। इससे कोष्ठगत शूल का भी निवारण होता है तथा कोलेस्ट्रोल की भी संभावना कम होती है।
पानी तब पियें जब आपका शरीर माएंगे
सामान्यतः हम यह सुनते हैं कि दिन में सबको आठ गिलास जल पीना चाहिए परंतु इससे जल का परिमाण निर्धारण न करके यह समझना चाहिए कि हमें जल की मात्रा अत्यधिक रखते हुए जल तब पीना चाहिए जब हमारा शरीर लक्षित करे।

तांबे या चांदी के पात्र का जल उत्तम
ऐसा माना गया है कि तांबे व चांदी में रखा गया जल हमारे तीन दोषों का सामने करने में कारगर है तथा यह जल को चार्ज करता है। तांबे की कीटाणुनाशक व सर्वदोषहर गुण के कारण यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाता है। चांदी का ठंडापन आंतों को भी शीतलता प्रदान कर पाचन शक्ति तीव्र करता है।
ग्रीष्म काल में जल
ग्रीष्म काल में पित्त अत्यधिक प्रकुपित रहता है तथा दोपहर के समय पित्त व उसकी ऊष्मा दिन के चरम स्तर पर रहने से शरीर में शीतलता का आधान करते हेतु जलपान अत्यधिक आवश्यक है। दोपहर के समय शीतलता बनाए रखने हेतु जल में पुदीना नींबू आदि द्रव्यों के साथ पीने से लाभ होता है।

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